घुमक्कड़ी बहुत लाजवाब शौक है। लेकिन इस शौक को आदत बना पाना बहुत मुश्किल है। जबसे सोशल मीडिया का जोर हुआ है तमाम घुमक्कड़ों के दर्शन होने शुरू हो गए। लेकिन इससे पहले घुमक्कड़ी में मेरी रुचि को देखकर हमारे वरिष्ठ और बड़े भाई अनुरोध भारद्वाज जी ने ‘मुसाफिर हूं यारों’ ब्लॉग का लिंक भेजा। समय निकालकर मैंने जब ब्लॉग खोला तो मुलाकात हुई ताबड़तोड़ घुमक्कड़ भाई नीरज मुसाफिर से। घूमने के साथ ही शब्दों पर भी उतनी ही खूबसूरत पकड़। एक के बाद एक संस्मरण... साइकिल से लेह यात्रा... दिल्ली से लेह, फूलों की घाटी... भाई मजा आ गया। मानों जैसे मन की मुराद ही मिल गई। नीरज के संस्मरणों और पोस्ट में साझा की गई नयनाभिराम तस्वीरों ने घूमने के लिए जोर मारना शुरू कर दिया। पर ऑफिस का काम, बेहद कम छुट्टियों के साथ ही कुछ अन्य जिम्मेदारियों
ने
घर
से
निकलने
ही
नहीं
दिया।
फिर फेसबुक पर ‘ट्रेवल टाल्क’ ग्रुप से जुड़कर नए साथियों के संस्मरण देखने-पढ़ने को मिले। बड़े ही कमाल के लोग। समान्यत: सभी के जीवन में मेरे जैसा ही काम का दबाव, फिर भी इनकी ऊर्जा काबिल-ए-तारीफ। कोई कभी उत्तराखंड की किसी कंदरा में है तो कोई राजस्थान के वियावान में घूम रहा है। कोई हिमालय पहुंच गया तो कोई केरल में तालाबों पर बोटिंग करता दिख रहा। दक्षिण में सागर की लहरों पर भी अठखेलियां करते घुमक्कड़ दिखे तो दार्जीलिंग की खूबसूरती में खोते भी देखे। मेरे अंदर के घुमक्कड़ी को मरने नहीं दिया।
अरे इन बातें के बीच मैं अपना परिचय तो दे दूं। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) का एक गांव सैदाबाद मेरा जन्म स्थान है। पढ़ाई के दौरान अनुशासान के डंडे ने मेरी घुमक्कड़ी के उड़ान को रोके रखा। हालांकि ये डंडा मन को उड़ने से नहीं रोक सका। मेडिकल की तैयारी और स्नातक की पढ़ाई के दौरान इलाहाबाद आ गया। यहां स्नातक के बाद पत्रकारिता की पढ़ाई की और वर्तमान में प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान के बरेली यूनिट में कार्यरत हूं। इससे पहले गाजियाबाद में अमर उजाला में सब एडिटर रहा। वहां से 2013 की जनवरी में जब हिन्दुस्तान ज्वाइन करने बरेली आया तो पहाड़ पास होने की जानकारी भर से रोमांचित हो उठा। पर ये रोमांच सिर्फ खयालों में ही रह गया।
130 किलोमीटर दूर नैनीताल होने के बावजूद निकलना नहीं हो पाया। अब मजबूरियां तो नहीं गिनाऊंगा लेकिन तमाम कारणों ने पांव रोके रखा। संयोग ही नहीं बन पा रहा था। यहां बहुत से नए साथी मिले। कई पहाड़ के रहने वाले सहकर्मी भी थे। उनके किस्से-कहानियों ने मुझे मानसिक रूप से उत्तराखंड के और करीब ला दिया।
शेष आगे... ‘मेरी पहली पहाड़ यात्रा’
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