बरेली से जागेश्वर यात्रा

अनुराग शुक्ला (यात्रा 2)

नैनीताल के बाद दूसरी पहाड़ यात्रा के लिए मैंने जागेश्वर धाम जाने का निर्णय लिया। अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध केदारनाथ शैली में बना महादेव का यह मंदिर जटागंगा के तट पर समुद्रतल से लगभग 6200 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। देवदार के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से घिरे इस पवित्र मंदिर में भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए और यहां की नैसर्गिक सुंदरता निहारने देश-दुनिया से लोग खिंचे चले आते हैं। मान्यताओं के अनुसार जागेश्वर भागवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।


देवदार के पेड़ों से छनकर आती जादूई धुंध और पत्थर की नायाब कारीगरी देखकर कौन नहीं मुग्ध हो जाएगा। तस्वीरों में जागेश्वर मंदिर को देखकर हमेशा मेरा घुमक्कड़ मन ललच जाता था। लेकिन कहते हैं न, समय से पहले कोई इच्छा पूरी नहीं होती।तो लंबे इंतजार के बाद समय आ ही गया, जब जागेश्वर जाने की योजना बनी। श्रावस्ती में अध्यापक हमारे रिश्तेदार क्षैमेंद्र शुक्ल जी और उनका परिवार बरेली आ रहा था। अचानक जैसे सभी सुयोग मिल गए और जागेश्वर जाने का रास्ता साफ हो गया। हमने अपनी योजना पत्नी-बच्चों से साझा की तो सभी को मानो बिन मांगी मुराद मिल गई। फिर क्या, एक-एक दिन यात्रा की योजना बनाने में यूं खत्म हुआ कि हमारी यात्रा की तारीख 30 मार्च कब आ गई पता ही नहीं चला।


Jageshwar Dham... देवदार के पेड़ों से छनकर आती जादूई धुंध और पत्थरों की नायाब कारीगरी देखकर कौन नहीं मुग्ध हो जाएगा। पढ़ें बरेली से जागेश्वर तक का रोमांचक यात्रा वृत्तांत...
   ऊंचे देवदार की छांव में जागेश्चर महादेव का मुख्य मंदिर।





ऐसे शुरू हुई जागेश्वर यात्रा
बरेली से करीब 224 किलोमीटर दूर जागेश्वर तक अगर अपनी कार से जाया जाए तो 6 से 7 घंटे लगेंगे। हम चार बड़े और पांच बच्चे। ऐसे में हमने हल्द्वानी तक ट्रेन से जाने का निर्णय लिया। 30 मार्च के लिए लखनऊ-काठगोदाम एक्सप्रेस में इज्जतनगर से काठगोदाम (पहाड़ का अंतिम रेलवे स्टेशन) के लिए सीट का रिजर्वेशन कराया। 30 मार्च को सुबह 04:25 बजे इज्जतनगर स्टेशन से ट्रेन पकड़ी और करीब 07:30 बजे हल्द्वानी पहुंचे। वहां ट्रेन काफी देर रुकी। इसी दौरान खिड़की पर टैक्सी चालकों की भीड़ लग गई। सभी अपने-अपने तरीके से यात्रियों को वाहन रिजर्व करने के लिए समझाने लगे। हमें बहुत अनुभव नहीं था। समझ में नहीं आ रहा था कि सरकारी बस से जाएं या कोई गाड़ी रिजर्व करें। इसी उहापोह में हमने हल्द्वानी में ही अपनी ट्रेन छोड़ दी। वहां फ्रेस होकर कार बुक करने का निर्णय लिया। एक ड्राइवर से बात करते ही कई चालकों ने हमें घेर लिया। पर सभी इतना ज्यादा पैसे बताने लगे कि हम उन्हें छोड़ बस अड्डे की ओर बढ़ गए। थोड़ी दूर चले होंगे कि एक मार्शल चालक आ गया। उसने 5000 रुपये में जागेश्वर ले जाने और अगले दिन वापस ले आने की हामी भरी।

... और हम चल पड़े पर धरी रह गई दवाओं की तैयारी
सुबह करीब 08:15 बजे हमारी सवारी जागेश्वर के लिए निकली। काठगोदाम पार कर कुछ ऊपर पहाड़ पर चढ़े होंगे कि क्षैमेंद्र भाई के सबसे छोटे पुत्र ने उल्टियां शुरू कर दीं। इसका अहसास तो हमें था, इसीलिए अपने मित्र डॉ. आशाद अंसारी से पहले ही चर्चा कर ली थी। उन्होंने उल्टी, बुखार, पेटदर्द, बदनदर्द और सिरदर्द आदि की दवाओं का नाम बताते हुए साथ ले जाने की सलाह दी। गलती बस इतनी हुई कि उल्टी की दवा हम किसी को यात्रा शुरू करने से पहले खिला नहीं पाए। नतीजतन समस्या खड़ी हो गई। गाड़ी रोककर साफ-सफाई के बाद हम आगे बढ़े। कुछ किलोमीटर चले थे कि क्षैमेंद्र भाई के बड़े पुत्र ने उल्टी शुरू कर दी। वहां रुककर आगे बढ़े तो मेरी बड़ी बेटी, फिर छोटी.. और ये सिलसिला चलता रहा। एक-एक कर सभी उल्टी के शिकार हुए। इस समस्या ने हमारी चिंता बढ़ाने के साथ ही यात्रा का समय भी बढ़ा दिया।


बिच्छू घास से टकराया हाथ और मानो बिजली का तार छू लिया हो  
खैर, रुकते-रुकाते हम भवाली के रास्ते करीब 2 घंटे बाद हल्द्वानी से 40 किलोमीटर दूर कैंची धाम पहुंचे। यहां का बहुत नाम सुना था। हमारे रास्ते में ही ये धाम पड़ेगा, ये हमें पता नहीं था। ऐसे में मंदिर पहुंचकर असीम आनंद का अनुभव हुआ। कैंची धाम पहुंचने पर चालक कृष्णकुमार ने कार सड़क के किनारे लगा दी। आगे बैठै क्षैमेंद्र भाई दरवाजा खोलकर उतरने लगे तभी चालक चिल्लाया... बचिए... लेकिन तब तक क्षैमेंद्र भाई का हाथ एक पौधे से जा टकराया। कोई कुछ समझ पाता कि क्षैमेंद्र भाई को मानों हाथ में करंट लगा हो। हथेली के पीछे बड़े-बड़े चकत्ते पड़ गए और तेज जलन होने लगी। चालक ने बताया कि हाथ ‘बिच्छू घास’ नाम के पौधे से टकरा गया था। पहाड़ों में इसका लकवा और कुछ अन्य बीमारियों में इलाज के रूप में प्रयोग होता है। चालक यह बता ही रहा था कि क्षैमेंद्र जी अपना हाथ पानी से धुलने लगे। ड्राइवर एक बार फिर चीखा लेकिन तबतक काम हो चुका था। पानी से ठंडक पहुंचने की जगह जलन बढ़ गई। ड्राइवर ने बताया कि पानी डालने से ‘बिच्छू घास’ का प्रभाव बढ़ जाता है। खैर उसने आश्वस्त किया कि कुछ समय में आराम लग जाएगा।



कैंची धाम का आकर्षण
सभी लोगों ने नीम करौली बाबा के दर्शन किए। ऊंचे और चीड़ व बुरांश के हरेभरे पेड़ों से आक्षादित पहाड़ की तलहटी में बने इस खूबसूरत मंदिर की साफ-सफाई, फूलों की दीवार ने मन मोह लिया। परिसर में थोड़ी देर बिताने के बाद हम बाहर निकलने लगे तो एक सज्जन ने आवाज दी। हम रुके तो उन्होंने हमें चने का प्रसाद दिया। प्रसाद का स्वाद हम आज भी नहीं भूले। बाहर निकलकर हमलोग चलने को हुए तो आसपास के दुकानों पर रखे पीले चमकदार नींबू ने ध्यान खींचा। उनका आकार मैदानों में मिलने वाले सामान्य नींबू से कई गुना बड़ा था। हमने इस नींबू की शिकंजी पी। वाह... लाजवाब स्वाद।





चीड़ के पेड़ों से गहराता गया पहाड़ का हरा रंग
कैंची धाम पहुंचकर सभी काफी तरोताजा हो गए। यहां हमने खूब तस्वीरें भी उतारीं। करीब 45 मिनट में हम धाम को पीछे छोड़ बढ़ गए। आगे चीड़ के पेड़ों के कारण पहाड़ का रंग गहरा हरा होता जा रहा था। इसी बीच बच्चों ने फिर उल्टी शुरू कर दी। सिरदर्द की भी शिकायत आई। बच्चों ने प्रकृति की सुंदरता निहारने की जगह फिर कभी यहां नहीं आने की बात शुरू कर दी। उनकी हालत देखकर घबराहट होने लगी लेकिन अब कर भी क्या सकते थे। खैर, हमारा सफर जारी रहा और करीब 01:30 घंटे बाद कृष्ण कुमार ने एक छोटे से घर जैसे होटल के बाहर गाड़ी रोक दी। बोले आगे अल्मोड़ा है। यहां खाना अच्छा मिलता है। हम सभी वहां खाना खा कर आगे बढ़ गए। करीब एक घंटे बाद हम अल्मोड़ा पहुंच गए।

वाह! अल्मोड़ा, देखा तो देखता रह गया
कैंची धाम से करीब 45 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा के बारे में अब तक मैंने किस्से-कहानियों में ही सुन रखा था। हमारे वरिष्ठ साथी प्रदीप तिवाड़ी जी का निवास स्थान अल्मोड़ा अपनी खूबसूरत बसावट के साथ ही लाजवाब बाल मिठाइयों के ल‍िए व‍िश्‍वव‍िख्‍यात है। जैसे-जैसे हम शहर पार कर बढ़ते गए, अल्मोड़ा की खूबसूरती से परदा उठता गया। ऊंचाई से पहाड़ के ढलान पर बने घरों के चटक रंग और उनकी बनावट बेहद आकर्षक लगती है। एक तरफ चमकते नीले-सफेद घर तो ठीक सामने गहरे हरे रंग का पहाड़। इस पहाड़ के ऊपर से छन कर आती धूप और ढलान पर बिखरी छांव की आंखमिचौली देख किसी जादू नगरी जैसा आभास हुआ।




बुरांश के फूलों का चटख रंग खूब भाया 
जागेश्वर की ओर दौड़ती गाड़ी के बगल की खाइयां हमें फिर डराने लगीं। गाड़ी जैसे-जैसे बढ़ रही थी, चीड़ के गहरे हरे रंग पर लाल रंग के बुरांश के फूलों की छाप पड़ती गई। यह फूल उत्तराखंड का राजकीय पुष्प है। चालक ने हमारी उत्सुकता देखकर एक चौड़े मोड़ पर गाड़ी दाएं लगाकर रोक दी। हम लोग नीचे उतर गए। वहां काफी तेज हवा चल रही थी। वहां थोड़ी देर तक हम रुके। मोबाइल और कैमरे में शानदार नजारों को कैद किया और आगे बढ़ गए।

देवदार के पेड़ों ने किया स्वागत
कुछ किलोमीटर चलकर पनुआनौला कस्बा आया। छोटा पर इस इलाके के लिए बेहद महत्वपूर्ण कस्बा। इसे पार कर हम करीब 6 किलोमीटर चले होंगे कि देवदार के पेड़ों ने हमारा स्वागत किया। चीड़ से काफी ऊंचे ये शानदार पेड़ मन को भा गए। थोड़ी देर में जागेश्वर धाम की ओर गाड़ी मुड़ गई और कुछ दूर पर पत्थरों की खास आकृति में बने कई मंदिर दिखने लगे। दोपहर करीब 02:30 बजे हम अपने गंतव्य पर पहुंच गए। चालक ने जागेश्वर मंदिर को पार कर कुछ दूर पर गाड़ी सड़क क‍िनारे लगा दी। मंदिर के बगल ही नहाने और फ्रेस होने की अच्छी व्यवस्था है। ये यात्रा थकाऊ और लंबी रही। बच्चे तो उल्टी कर बीमारों जैसे हो गए थे। खैर सभी लोग वहां फ्रेस हुए और मंदिर पहुंच गए।

         जागेश्वर के मुख्य सड़क से वृद्ध जागेश्वर को मुड़ते ही तिराहे पर यह शिवलिंग आपका ध्यान आकर्षित कर लेगा।  

मंदिर की खास बनावट और शांत वातावरण ने किया मोहित
देवदार के पेड़ों से घिरे मंदिर अलौकिक लग रहे थे। मंदिर की खास निर्माण शैली और शांत वातावरण ने सभी का मन मोह लिया। सारी थकान छू मंतर हो गई। हमारे सहकर्मी प्रदीप तिवाड़ी जी ने जागेश्वर मंदिर के पुजारी पंडित गिरीश दा का मोबाइल नंबर दिया था। तो हम गिरीश दा को पहले ही फोन कर चुके थे। थोड़ी देर में मंदिर गेट पर हमें पंडित जी मिले। सभी को वे मुख्य मंदिर में ले गए। बाहर तो पर्याप्त रोशनी थी, लेकिन मंदिर के अंदर कम रोशनी और ठंडक। पत्थरों से बने मंदिर के खास बनावट के कारण अंदर का तापमान बाहर से काफी कम था। वहां पर विधिवत पूजा करने के बाद हम बाहर आ गए और परिसर के अन्य मंदिरों की ओर बढ़े।


शिव-पार्वती और गजदंत वृक्ष 
जागेश्वर के मुख्य मंदिर के पीछे देवदार का एक बेहद ऊंचा और मोटा पेड़ अपनी खास बनावट के लिए प्रसिद्ध है। पेड़ का तना करीब 15 मीटर ऊपर से दो भागों में बंट गया है। पंडितजी ने बताया कि इस प्राचीन वृक्ष को शिव और पार्वती का रूप माना जाता है। वहां तस्वीरें उतारने के बाद आमने-सामने के दो मंदिरों में दर्शन कर हम आगे बढ़े। वहां एक और शानदार पेड़ देखकर सभी चौंक गए। पेड़ से निकली एक मोटी शाखा किसी हाथी की तरह दिख रही थी। शाखा ज्यादा बड़ी नहीं थी लेकिन ऊपर की ओर सूंड़ की तरह उठी थी, जबकि पेड़ से निकलते समय शाखा हाथी के सिर जैसी दिख रही थी। खास बात यह थी कि शाखा के करीब करीब बीच से दो गजदंत जैसी शाखाएं भी निकली थीं। गिरीशदा ने बताया कि हाथी के आकार के कारण इस पेड़ को गजदंत वृक्ष कहते हैं। पेड़ के ठीक बगल से बहती जटागंगा के दर्शन कर हमने अन्य मंदिरों के दर्शन किए। समय तेजी से बढ़ रहा था तो हमने वहां से चलने का निर्णय लिया। पंडित जी से विदा लेकर हम मंदिर से बाहर आ गए। यहां से हमें वृद्ध जागेश्वर जाना था।

अगला पड़ाव वृद्ध जागेश्वर  
बरेली से चलने से पहले वरिष्ठ फोटोग्राफर पंकज शर्माजी ने हमें वृद्ध जागेश्वर जाने और वहां रात रुककर सुबह हिमदर्शन की सलाह दी थी। वृद्ध जागेश्वर के बारे में तो कुछ नहीं पता था लेकिन हिमालय के दर्शन की बात सुनकर मैंने वहां जाने का निर्णय ले लिया। पंकज जी ने वृद्ध जागेश्वर में ‘हिमदर्शन रिजॉर्ट’ के संचालक बिष्ट जी का नंबर दिया। हम जागेश्वर से चल पड़े। चालक ने बताया था कि लौटते समय पनुआनौला कस्बे से दो किलोमीटर पहले ही एक सड़क वृद्ध जागेश्वर के लिए दाईं ओर मुड़ेगी। जागेश्वर से लौटकर हम आठ किलोमीटर चले होंगे तभी एक तिराहा दिखा। वहीं होर्डिंग पर वृद्ध जागेश्वर के लिए दाएं मुड़ने का निशान देखकर चालक ने गाड़ी मोड़ दी।


ऐसे जा सकते हैं : बरेली>> हल्द्वानी>> काठगोदाम>>भीमताल>>सातताल>>भवाली>> अल्मोड़ा>> पनुआनौला>>जागेश्वर (223.5 किमी NH109 से होकर)


डर के मारे पढ़ने लगे हनुमान चालीसा
वृद्ध जागेश्वर जाने वाली सड़क मुख्य सड़क से करीब आधी थी। जगह-जगह गड्ढे भी दिख रहे थे। करीब दो सौ मीटर चलते ही गाड़ी में बैठे सभी लोगों के चेहरे पर डर दिखने लगा। बगल बैठी पत्नी तो हनुमान चालीसा पढ़ने लगीं। मुझे भी डर लगने लगा। मैंने चालक कृष्ण कुमार से कहा कि कहीं मुड़ सकते हो तो गाड़ी मोड़कर लौटा लो। इस पर हंसते हुए कृष्ण कुमार बोले- साहब, परेशान मत होइए; पहाड़ों पर तो ऐसे ही रास्ते मिलेंगे। मुझपर भरोसा रखिए। वैसे भी इस सड़क पर कोई गाड़ी मुड़ नहीं सकती। मंदिर के पास ही कहीं मोड़ने की जगह मिलेगी। खैर, करीब छह किलोमीटर चलने के बाद हम एक घर के सामने रुके। अंदर दो दुकानें खुली थीं। हमने हिमदर्शन रिजॉर्ट के बारे में पूछा तो पता चला कि हम वहीं खड़े हैं। रिजॉर्ट मालिक बिष्टजी तो दिल्ली में थे। उनके बेटे कमल ने हमारा स्वागत किया और हमें अपने पीछे आने को कहा। बताया कि वृद्ध जागेश्वर बाबा का मंदिर यहां से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।


    वृद्ध जागेश्चर में सुबह-सुबह नंदा पीक, त्रिशूल पीक का मनमोहक नजारा। 

बादलों से झांकती नंदा देवी की चोटी देख दूर हो गई थकान
सीढ़ियों से चढ़कर हम ऊपर बने छोटे पर खूबसूरत कमरे में पहुंचे। वहां सामान रख कर बेड पर पसर गए । बेटियों ने खिड़की खोली तो सामने का नजारा देख हमारी आंखें खुली की खुली रह गईं। बादलों के बीच से झांकती हिमालय की स्वच्छ धवल चोटियां मानों उलाहना दे रही हों क‍ि इतनी देर कहां कर दी...। हम सभी अपनी थकान भूलकर बाहर बालकनी में आ गए। वहां से सामने सड़क जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी और उसके ठीक बगल गहरी खाईं। दरअसल जब हम पहुंचे थे तो खाईं की तरफ नीचे बादलों का बसेरा था, जिससे ज्यादा दूर तक नहीं दिख रहा था। पर आश्चर्यजनक रूप से थोड़ी देर में ही आसपास के बादल कहीं दूर चले गए और उनके पीछे हिमालय सीना ताने खड़ा था। कमल ने बताया कि ये नंदा देवी चोटी है, उसके बगल त्रिशूल चोटी। आपको सच बताऊं, ऐसा शानदार नजारा हमने जीवन में नहीं देखा था। हालांकि कमल ने बताया कि हिमालय वहां से काफी दूर है। हम करीब 6600 फीट की ऊंचाई पर इस समय खड़े हैं। शाम हो रही ऐसे में रोशनी भी कम हो रही है। सुबह सूरज की पहली किरण के साथ यह नजारा और शानदार हो जाएगा।

   हिमदर्शन रिजॉर्ट की बालकनी में बैठकर चाय का लुत्फ उठाते हुए हिमालय को निहारने का आनंद उठा सकते हैं।

हाथ में चाय, साथ में बिस्किट और सामने स्वच्छ धवल हिम चोटियां
कमल ने कहा कि आपसभी जल्दी-जल्दी फ्रेस हो जाएं चाय आ रही है। थोड़ी देर में ही बिल्कुल गांव वाले अंदाज में कमल चाय लेकर आ पहुंचे। हम लोगों ने रूम में रखी बांस की कुर्सी बाहर बालकनी में खींच लीं और सभी साथ बैठकर चाय-बिस्किट का लुत्फ उठाते हुए हिमालय की खूबसूरती को निहारने लगे। तभी हमारा ध्यान बगल में बैठे भालू जैसे काले कुत्ते पर गया। एकबारगी तो हम डरे लेकिन तभी कमल आ गए और बताया कि यह भूटिया कुत्ता है और पहाड़ों पर ही पाया जाता है। आक्रामक तो है, लेकिन मेहमानों से बड़ी तमीज से पेश आता है। खैर, हमने चाय खत्म की और आसपास के स्थान की जानकारी ली।

   वृद्ध जागेश्वर में सूर्यास्त के समय का नजारा बेहद शानदार दिखता है। 

खूबसूरत शाम, मानों किसी ने बादलों में रंग भर दिए 
शाम होने लगी तो तापमान तेजी से गिरने लगा था। कंपकपी लगने पर अभी तक हाफ स्वेटर पहने हम लोगों ने जैकेट डाल ली और पैदल ही सड़क पर बढ़ गए। कुछ दूर पर जाकर सड़क थोड़ी चौड़ी हो गई। बाईं ओर एक मंदिर दिखा और मंदिर से ही सटा छोटा सा एक समतल मैदान भी। उस मैदान से सामने का नजारा ज्यादा साफ दिख रहा था। जरा सी देर में ही सूरज पहाड़ के पीछे छिपने लगा तो अभी तक एकदम सफेद दिख रहे बादल पीले होने के बाद तांबे के रंग के हो गए। यह दृश्य किसी चित्रकारी सा लगने लगा। हमलोगों ने वहां खूब तस्वीरें उतारीं। रोशनी ज्‍यादा कम होने पर हम रिजॉर्ट लौट आए। मुश्किल से पांच-दस मिनट में ही अंधेरा हो गया। हमलोग रूम में आ गए। कमल का संदेश आया कि 08:00 बजे तक भोजन तैयार हो जाएगा। करीब 08:30 बजे तक भोजन कर हम छत पर आए। तब तक तेज हवा चलने लगी थी। रूम के पीछे छत पर हमलोग टहलने लगे, लेकिन आवाज के साथ हवा का वेेेग लगातार तेज होता गया। बच्चे खुद को संभाल नहीं पा रहे थे। कमल ने बताया कि यहां रात में हवा का वेग बढ़ जाता है। हम लोग अपने-अपने रूम में आ गए। थोड़ी देर की बातचीत के बाद थकान के कारण सभी सो गए।

   वृद्ध जागेश्वर में पहाड़ी की ओट में छिपते सूरज का दृश्य आप ताउम्र नहीं भूलेंगे।

रास नहीं आ रही थी पहाड़ी रात की शांति  
रात करीब 12 बजे मेरी नींद खुल गई। थोड़ी देर में बेटियां भी जग गईं। बोलीं, खिड़की खोलो सुबह हो गई होगी। हमने घड़ी दिखाकर बताया कि अभी तो 12 ही बजे हैं। खैर, खिड़की खोली तो सामने मानों पहाड़ी ढलान पर तारे उतर आए हों। शाम को बादलों के कारण नीचे कुछ दिख नहीं रहा था पर रात में आसमान साफ था। पहाड़ की ढलानों पर कई गांव बसे थे। घरों में जल रहे बल्ब तारे जैसे दिख रहे थे। मैं रूम से बालकनी में आ गया। ऊपर आसमान में तारे बेहद चमकदार थे। ऐसे साफ तारे तो बचपन में ही देखे थे। थोड़ी देर बाहर का नजारा निहारने के बाद वापस रूम में आ गया। पहाड़ी रात इतनी शांत होती है इसका अंदाजा नहीं था। इस शांति के कारण नींद नहीं आ रही थी। शहर में कहीं न कहीं से आवाज आती ही रहती है। पर वृद्ध जागेश्वर में तो एक दम सन्नाटा। पहाड़ व शहर की व्यवस्थाओं और परेशानियों के बारे में विचार करते-करते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सुबह पांच बजे हम लोग उठ गए। दूर दूधिया उजाला झलकने लगा।

  वृद्ध जागेश्वर में सूर्योदय भी अनोखा होता है। सूर्य की प्रथम किरणें पड़ते ही हिमचोटियां सोने सी चमक उठती हैं।  (मोबाइल तस्वीर)

सूरज की पहली किरण ने उठाया रहस्य से पर्दा
सुबह करीब छह बजे सूरज की पहली किरण नंदा देवी चोटी पर पड़ी। बर्फ की चोटी सोने सी चमक उठी। मिनट दर मिनट रोशनी बढ़ती गई और सामने हिमालय का चेहरा साफ होता गया। त्रिशूल पीक, नंदा पीक क्या खूब लग रहे थे। 180 डिग्री पर पूरा ह‍िमालय दिख रहा था। मैंने और क्षैमेंद्र भाई ने बगल की पहाड़ी पर ट्रैकिंग का निर्णय लिया और निकल पड़े। कुछ दूर तक रास्ता दिखा लेकिन आगे बेहद पतली पगडंडी हो गई। लेकिन हम आगे बढ़ते गए। पहाड़ी के पीक पर पहुंचते-पहुंचते हमारी सांसे उखड़ने लगीं और धड़कन तेज। वहां थोड़ी देर सुस्ताने और गहरी-गहरी सांसें लेने के बाद कुछ बेहतर लगने लगा। वहां से ‘हिमदर्शन रिजॉर्ट’ काफी नीचे दिख रहा था। सामने पहाड़ और खुला खुला दिखने लगा। सफेद बर्फ से ढंकीं हिमालय की चोटियां और नीचे खाइयां बुरांश के फूलों से लकदक; क्या कमाल का नजारा। हमलोगों ने खूब तस्वीरें उतारीं। वहां से नंदा और त्रिशूल चोटी ज्यादा स्पष्ट नजर आई। इतनी ऊंचाई पर हमें खूबसूरत हिमालयन पक्षियों की चहचहाहट सुनाई दी। आवाज का पीछा करती नजरें परिंदों तक पहुंचीं, लेकिन वे ठीक से दिख नहीं रहे थे। थोड़ी देर बाद नीले रंग की बेहद खूबसूरत छोटी सी चिड़िया काफी पास से उड़ी। कुछ दूर पर एक और आकर्षक पक्षी आ गया। कैमरे में लैंस नहीं होने से परिंदों की अच्छी तस्वीरें नहीं उतार पाया। लेकिन वहां से प्रकृति के शानदार नजारों को आंखों में कैद करते रहे। करीब आधा घंटा वहां गुजारने के बाद हम वापस रिजॉर्ट आ गए।

वृद्ध जागेश्वर जाएं तो हिमदर्शन रिजार्ट में ठहरना बुद्धिमानी का निर्णय हो सकता है। यहां से सामने हिमालय का व्यू शानदार दिखता है। 

सोलर ऊर्जा से गर्म हुए पानी में नहाना अच्छा लगा
रिजॉर्ट पहुंचे तो पत्नी, बच्चे सब तैयार हो गए थे। ठंड के कारण मेरी हिम्मत नहाने की नहीं हो रही थी लेकिन पता चला कि सोलर से गर्म हुआ पानी आ रहा है। फिर क्या जल्दी-जल्दी हमने भी स्नान किया और तैयार हो गए। इतने में कमल भाई चाय लेकर आ गए। चाय खत्म कर सभी लोग अगले रोमांच के लिए तैयार हो गए।

यूपी के मंदिरों से उलट वृद्ध जागेश्वर की शांति आपका मन मोह लेगी
हमलोग गाड़ी से एक किलोमीटर आगे वृद्धजागेश्वर के लिए निकल गए। मंदिर पहुंचे तो ले-देकर दो फूल की, एक चाय-नाश्‍ता की दुकानों के साथ केवल एक रिजॉर्ट मिला। पूजा सामग्री लेकर हमलोग मंदिर में प्रवेश कर गए। यहां भी अंदर रोशनी काफी कम और नमी ज्यादा थी। मंदिर बेहद प्राचीन है और जागेश्वर की ही तरह ही दिख रहा था। यहां पहुंचकर अलौकिक अहसास हुआ। ईमानादारी से कहूं तो उत्तर प्रदेश के मंदिरों में खासकर प्रयागराज, वाराणसी, विंध्याचल आदि स्थानों पर लूटखसोट मची रहती है। यहां पर पंडों और दुकानदारों को तो जैसे लाइसेंस ही मिला रहता है कि वे श्रद्धालुओं को निचोड़ लें। इसके साथ ही इतना शोरगुल और रस्‍साकस्‍सी कि आप पूजा कम वहां से निकलने पर ज्यादा ध्यान देने को मजबूर हो जाते हैं। वृद्ध जागेश्वर में ऐसा कुछ नहीं था। बेहद शांत और सुरम्य स्थान पर बना यह मंदिर आपको अपनी शांत वातावरण से मन मोह लेगा। पंडित जी ने बहुत मन से पूजा करवाकर हमें आशीर्वाद दिया। बाहर आकर हमलोगों ने चाय पी। दुकानदार के पास ही गाय का दूध मिल गया। क्षैमेंद्र भाई के छोटेे बेटे के लिए हमने दूध गरम करवाकर थर्मस में रख लिया और वापस अपने रिजॉर्ट आ गए।



फिर आने का वादा कर हम लौट गए
हिमदर्शन रिजॉर्ट पहुंचे तो कमल ने नाश्ते के लिए बुला लिया। अरे नाश्ता क्या ये तो पूरा खाना था। पराठा, दही और अचार... वाह सुबह-सुबह ये शानादार नाश्ता कर मजा आ गया। थोड़ी देर बाहर हमलोगों ने फोटो खींचे। कमल का हिसाब किया। एक दिन में ही वृद्ध जागेश्वर और कमल से जैसे भावनात्मक रिश्ता जुड़ गया। कमल ने फिर आने का आग्रह किया और बताया कि अगली बार आपलोग आएंगे तो बगल में उनका एक रिजॉर्ट और तैयार हो जाएगा। हमलोगों ने फिर आने का वादा किया और गाड़ी में बैठ गए।

... और सारा डर कहीं काफूर हो गया
वृद्ध जागेश्वर जाते समय सभी लोगों को डर लग रहा था लेकिन वापसी में डर जैसे गायब था। सभी लोग खाइयों को देखकर खासे रोमांचित थे। मैंने वीडियो बनाते हुए कमेंट्री शुरू कर दी तो बाकी लोग खिड़की से बाहर हरियाली के दर्शन करने लगे। सभी लोगों को खुश देखकर मन को काफी सुकून मिला।




बुरांश के फूल 
गहरी खाइयों में बुरांश के फूल बेहद आकर्षक लग रहे थे। कुछ फूल साथ ले चलने का मन हो आया। गाड़ी रुकवाकर उतर गए। दाहिनी ओर की पहाड़ी पर कुछ लड़कियां शायद लकड़ी बीन रही थीं। हमें देखकर उत्सुकतावश आपस में कुछ बातें करने लगीं। मैं उन्हें नजरअंदाज कर अपने बगल एक पेड़ से बुरांश के फूल तोड़ने की कोशिश करने लगा। लेकिन खाईं की ओर झुके पेड़ से फूल तोड़ना बेहद खतरनाक दिख रहा था। शायद मेरी परेशानी को भांपकर लड़कियों ने ऊपर से ढेर सारे बुरांश के फूल तोड़कर नीचे हमारी तरफ उछाल दिए। ड्राइवर और मैंने उन फूलों को चुनकर रख लिया। लड़क‍ियों का आभार जता आगे बढ़ गए।

वापसी वाया नैनीताल
वापसी में हमने नैनीताल होकर हल्द्वानी लौटनेे का न‍िर्णय ल‍िया। रास्‍ते में कैंची धाम से हमने पांच लीटर के बुरांश के जूस एक गैलन खरीदा। इससे पहले कहीं पर हमने बाल मिठाई भी खरीद ली थी। दोपहर करीब 01:00 बजे हम नैनीताल पहुंच गए। गाड़ी चालक कृष्ण कुमार ने बताया कि झील के आसपास गाड़ी पार्क नहीं हो सकती। ऐसे में वे हमें झील के पास बस अड्डे पर उतारकर नीचे की ओर चले गए। हमसे कह गए जब चलना हो तो फोन कर दीजिएगा, तब तक कहीं गाड़ी पार्क कर लेता हूं। मैं पहले ही नैनीताल घूम चुका था तो मुझे खास उत्साह नहीं था लेकिन बाकी लोग बेहद रोमांचित थे।

     बेटी यश्वी और आराध्या ने नैनीताल में वोटिंग का खूब लुत्फ उठाया। 

झील पर वोटिंग का मजा ही कुछ और है
नैनी झील में हमलोगों ने वोटिंग का लुत्फ लिया। हरे रंग की झील की गहराई करीब 85 फीट है। पानी इतना ठंडा कि शरीर पर छीट पड़ते ही सिहरन हो जाए। यहां वोटिंग कर सभी को बहुत मजा आ रहा था। इसी बीच झील में आधे रास्ते से नाव वाला मुड़ गया। पता चला कि आगे दूसरे नाव वालों का इलाका है। दरअसल झील को दो भागों में बांटा गया है। आधे में दूसरे नाव वाले लोगों को वोटिंग कराते हैं। खैर, बीच झील से चारों तरफ का नजारा बेहद शानदार था। नैनीताल की असली खूबसूरती झील के बीच से ही दिखती है। गहरा हरा रंग लिए चारों तरफ खड़े पहाड़। दो पहाड़ियों के बीच से झांकता आसमान, पहाड़ों पर बने घर बेहद आकर्षक लगते हैं। दूर होने के कारण घरों के बीच की दूरी और रास्ते सिमटे हुए दिखते हैं। कुल मिलाकर न भूलने वाला दृश्य दिखता है। मैं तो यही कहूंगा कि नैनीताल जाएं तो वोटिंग का मजा जरूर लें।


हमारा कैमरा और दिल्ली वाला मुस्लिम जोड़ा
मॉल रोड होते हुए मल्ली ताल की ओर बढ़े और झील के किनारे के जगह आराम करने लगे। वहां से हम लोग पेट पूजा के लिए एक होटल चले गए। होटल से लौटते समय पता चला कि हमारा कैमरा गायब था। सारे टाइम कैमरा छोटी बेटी आराध्या के पास ही था लेकिन अब नहीं मिला रहा था। सभी लोग परेशान हो गए। मैंने मन ही मन मान लिया कि अब कैमरा मिलना नामुमकिन है। कैमरे में पूरी यात्रा की यादें थीं और उसके साथ ही यादगार तस्‍वीरों के गायब होने का दुख ज्यादा था। खैर हम कभी होटल तो कभी नाव के पास चक्कर लगाने लगे। करीब ढाई घंटे गुजर गए। तभी हम तीसरी बार फिर एक बार वहां पहुंचे जहां कुछ देर रुककर आराम किया था। हमें काफी चक्कर लगाते देख वहां मौजूद एक दंपति ने रोककर पूछा कि क्‍या कोई चीज खो गई है। हम सभी एक स्वर में बोल पड़े कैमरा... इसपर पति-पत्नी मुस्कुराने लगे। दिल्ली के रहने वाले आरिफ और उनकी पत्नी ने बताया कि हमारा कैमरा एक कार चालक के पास है। उसे यहां पड़ा मिला। उसने यहां आसपास लोगों से पूछा लेकिन सभी ने मना कर दिया तो शायद पुलिस को दे दिया हो या साथ ले गया हो। लो... अब चालक को कहां तलाशा जाए, लेकिन आरिफ की पत्नी ने बेहद चालाकी से कार चालक का मोबाइल नंबर ले लिया था।


 शुक्रिया अशोक, यार तुमने दिल जीत लिया
आरिफ से मिले नंबर पर हमने कॉल किया तो उधर से किसी अशोक ने रिसीव किया। समझ में नहीं आ रहा था कि सीधे-सीधे कैसे पूछें। मुंह से निकल पड़ा कि कहीं घूमने जाना है आप कार से ले चलेंगे। अशोक ने कहा कि सर अभी टूरिस्ट को लेकर घुमाने निकला हूं आने में डेढ़-दो घंटे लग जाएंगे, आप दूसरी कार कर लीजिए। अब क्या करूं... खैर, मैंने कैमरे के लिए पूछ ही डाला। अशोक ने हंसते हुए कहा कि आपका ही कैमरा है... चिंता न करें, अभी लौट के आ रहा हूं तो आपको मिल जाएगा। हमने राहत की सांस कि चलो कैमरे का पता तो चल गया लेकिन भरोसा नहीं हो रहा था कि वापस आएगा ही। खैर, हम सभी ने आरिफ और उनकी पत्नी का शुक्रिया अदा किया और कार चालक का इंतजार करने लगे। करीब ढाई घंटे बाद अशोक आए। इससे पहले हमने कई बार फोन किया तो अशोक ने कहा कि आपकी अमानत मेरे किसी काम की नहीं है भरोसा रखिए... लौट रहा हूं। अशोक ने सकुशल हमारा कैमरा लौटा दिया। हमारी खुशी देखकर अशोक बोले,
"आप भाग्यशाली हैं कि यह कैमरा किसी पहाड़ी के हाथ लगा, कोई मैदान का आदमी पाता तो आपको कभी वापस नहीं मिलता। पहाड़ के लोगों के लिए पर्यटन ही उनकी उम्मीद है और वे कभी नहीं चाहेंगे कि कोई पर्यटक अपने साथ बुरी यादें लेकर जाए।"
अशोक की बात में दम था... पहाड़ जितना खूबसूरत है; वहां के लोग भी उतने ही खूबसूरत हैं। जागेश्वर और वृद्ध जागेश्वर के लोगों ने अपने स्वभाव से दिल जीत लिया था। नैनीताल में चालक की ईमानदारी ने मेरे मन में पहाड़ के लोगों के प्रति सम्मान और बढ़ा दिया।

रात 11 बजे हम पहुंच गए बरेली
नैनीताल से हल्द्वानी पहुंचकर रात 08:30 पर हमने बरेली के लिए बस पकड़ ली। रात करीब 11 बजे इज्जतनगर स्टेशन के सामने उतर गए। इस तरह से दूसरे दिन हमारी पहाड़ की यात्रा संपन्न हो गई। पहाड़ की स्मृतियां भुलाए नहीं भूल रही थीं। पूरी यात्रा में कहीं भी हमें कोई परेशानी नहीं हुई, सिवाय उल्टी-पल्टी के।

पहाड़ पर जा रहे हैं तो रखें ध्यान
  • किसी चिकित्सक से सलाह कर अपने साथ उल्टी, सरदर्द, बुखार, पेटदर्द आदि की दवाएं जरूर ले जाएं। उल्टी की दवा यात्रा शुरू करने से करीब एक घंटे पूर्व खाएं।
  • पहाड़ों पर रात होने से पहले किसी भी हाल में अपने रिसॉर्ट, होटल या जहां भी रुकने की व्यवस्था है वहां लौट आएं। पहाड़ पर रात में मदद मिलनी मुश्किल होती है। 
  • अपने साथ बीएसएनएल, एयरटेल का सिम जरूर ले जाएं। अन्य मोबाइल कंपनियों का नेटवर्क नहीं मिलता। ऐसे में आपतकाल में आप मदद के लिए कहीं संपर्क नहीं कर पाएंगे।
  • अपने साथ लाए गए बिस्किट, चिप्स, नमकीन आदि के पैकेट और पॉलीथिन इधर-उधर न फेंके। पानी के खाली बॉटल या अन्य किसी तरह का कूड़-करकट भी याथाउचित जगह ही डालें। पहाड़ों पर गंदगी न फैलाएं। 

कुछ यादगार तस्वीरें...







Comments

  1. लेखनी तो जबरदस्त है ही, फोटोग्राफी का भी कोई जोड़ नहीं। फोटो देखकर लगता है, मानो किसी पेशेवर ने कुदरत को अपने कैमरे में कैद किया हो।

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  2. बहुत सुन्दर 👌

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  3. Shukla ji aap to bahut bade wale lekhak type ke nikale ek dum jabardast

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    1. शुक्रिया, पर आपकी प्रोफाइल नहीं दिख रही।

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  4. Hey,
    Thanks for sharing this weblog its very useful to put into effect in our work
    psara license Bareilly

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  5. Replies
    1. धन्यवाद अखिलेश। देरी से उत्तर दे पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूं।

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  6. आपने खूबसूरती से यह विषय उठाया है। मेरा यह लेख भी पढ़ें जागेश्वर मंदिर उत्तराखंड

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    1. धन्यवाद। बहुत देर से देख पाने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं। आपका लेख जरूर पढूंगा।

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