घूमने की तड़प तुम क्या जानो बाबू...



मैंने दिल से कहा, घूमने की तड़प क्या होती है, ये तुम क्या जानो बाबू। रोज नई जगह की कल्पना भर रोमांच से भर देती है। आंखें बंद की और सामने एक खूबसूरत जगह। वहां जाने की अकुलाहट, अपनी बेबसी पर रोना, जिम्मेदारियों का पहाड़ और अंततः निल्ल बटा सन्नाटा। आँखें खुल गई, दिमाग सुन्न और कल्पना पर ब्रेक। धत्त ... फिर वही बात, फिर वही मात... क्या होगा? कब होगा? होगा भी या नहीं? ऐसे ही न जाने कितने ही बकवास से सवाल। अनगिनत, अनवरत।

मेरी पहली पहाड़ यात्रा

दिल ने कहा बस करो तुम्हारा रोज का रोना, रोज का ड्रामा। आखिर कब तक यूँ बेकार के सपने सहेजोगे? काम करो काम, ये घूमने-वूमने, देश-दुनियां देखने की कल्पनाओं से निकलो। हकीकत में जियो। अभी बड़े पापड़ बेलने हैं तुम्हें।
दिल के ताने सुनकर निरुत्तर। समझ नहीं आता क्या करूं। छोटी सी नौकरी। उम्मीदों का बोझ, जिम्मेदारियों की हकीकत। क्या कहूँ। सारे शौक तो पहले ही मार चुका हूँ। अब, अब क्या। बस यूँ ही उम्र बीत जाएगी क्या? मन के सारे सवाल यूँ ही अनुत्तरित रह जाएंगे क्या? एक-एक दिन कर महीने-साल गुजर गए। क्या आगे भी समय ऐसे ही गुजर जाएगा?
अंधकार बस अन्धकार... कुछ तो उत्तर मिले। मन ने कहा नहीं। अब लो नहीं का क्या मतलब। हाँ वाला नहीं, या न वाला नहीं। कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन। ...??? 



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